बिखरती ज़िन्दगी
ज़िन्दगी मेरी
मेरे आसपास बिखरती
जा रही है
ज़र्रा ज़र्रा
मेरे हाथ से निकलती
जा रही है
मैं हूँ कि उलछा हूँ
अपने ही में
जैसे घिरा हो कोई
अर्थहीन अनबुछे
प्रश्नों की झड़ी में
बिखरती है ज़िन्दगी बाहर
बिखरता जा रहा है
कुछ भीतर भी
पकडूं तो क्या
पकड़ पाऊंगा क्या
हूँ क्या
है क्या
बस इसी तरह उलछा हूँ
ज़िन्दगी में
बिखरता ज़र्रा ज़र्रा
.
©आई बी अरोड़ा
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