Friday 29 August 2014

बिखरती ज़िन्दगी
ज़िन्दगी मेरी
मेरे आसपास बिखरती जा रही है
ज़र्रा ज़र्रा
मेरे हाथ से निकलती जा रही है
मैं हूँ कि उलछा हूँ
अपने ही में
जैसे घिरा हो कोई
अर्थहीन अनबुछे प्रश्नों की झड़ी में
बिखरती  है ज़िन्दगी बाहर
बिखरता जा रहा है कुछ भीतर भी
पकडूं तो क्या
पकड़ पाऊंगा क्या
हूँ क्या
है क्या
बस इसी तरह उलछा हूँ
ज़िन्दगी में
बिखरता ज़र्रा ज़र्रा .

©आई बी अरोड़ा 

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