एक मित्र के नाम
बाग़ में जब आती थी चिनार के सूखे पत्तों की बाड़
चुपचाप हम देखते रहते थे पर्वतों की चोटियां
वो ले लेतीं गुम्मकड़ बादलों की आड़
डल झील के किनारे मीलों चलते
रहते थे चुपचाप
सुनते दूर जाती नाव के चपुओं की धीमी धीमी थाप
यूहीं खड़े हम देखते रहते थे
पानी पर बहती लहरें
अचानक तब छू जाती थीं किसी की मासूमियत की फुहारें
बंद रोशनी में सुनना वो पुराने गीत
ख़ामोशी को बना लेना अपने मन का मीत
सब याद है कुछ भी भुला नहीं आज तक
इतनी दूर आने के बाद भी
जैसे रुका हुआ हूँ वहीं पर अबतक
जिन पेचदार रास्तों में सदा के लिये खो गये थे तुम
उन रास्तों की यादें पर अब धीरे धीरे हो रही हैं घुम
कितना खोया कितना पाया
कितना सोचा कितना जी पाया
सब जैसे बेमानी है
मन तो जैसे अब भी अटका है
चिनार के सूखे पत्तों में
झील की निर्मल लहरों में
बंद रोशनी और पुराने गीतों में.
©आई बी अरोड़ा
bahut sunder!
ReplyDeleteyou are the first one to comment on my new blog. i am extremely grateful to you.looking forward to your support and appreciation. thanks
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