Thursday 28 August 2014

होता है आश्चर्य
जब,
पीछे मुड़ कर देखता हूँ
तो होता है आश्चर्य,
अरे, मुझे तो हमेशा
मेरे अपनों ने ही ठगा
मुझे तो हमेशा
मेरे सपनों ने ही ठगा.
जब,
पीछे मुड़ कर देखता हूँ
तो होता है आश्चर्य,  
कोई भी तो न हुए अपने
न ही मेरे अपने
न ही मेरे सपने.
मुझे तो था विश्वास
अपनों पर भी,
सपनों पर भी.
परन्तु
न अपनों ने दिया साथ
न सपनों ने दिया साथ.
मन है कि उलझा है लेकिन
अनचाहे प्रश्नों की झड़ी में-
क्यों
मैंने अपनों के लिये
सपनों को छोड़ा ?
क्यों
मैंने सपनों के लिए
अपनों को छोड़ा ?
अब,
पीछे मुड़ कर देखता हूँ
तो होता है आश्चर्य
सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न हैं,
वो कल भी थे साथ
वो आज भी हैं साथ.

©आई बी अरोड़ा 

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