कभी सोचा था
कभी सोचा था कि
एक देवदार-सा धरती से उठ
आकाश की और चल दूंगा
हिम पर्वत पर बिखरी
किरणों को
मुठ्ठियों में बंद
कर लूंगा
तारों को छूं लूंगा
लेकिन
सारा सोचा समझा जीवन
का गणित
कहीं बीच में ही
खड़बड़ा गया
जब भी जितना भी
ऊपर उठा
उतने ही नीचे धँसता
गया
नीचे
एक गहरे लिजलिजे अंधकार
में
हर बार का ऊपर उठना
अपने को
नीचे धकेल कर ही हो
पाया
तारों को छूने से
पहले
रसातल छू लिया
परन्तु
इतना सम्मोहित कर रखा
था
ऊँचाइयों ने
कि पतन का अहसास ही न हुआ
कभी सोचा ही नहीं
कि जितना जाऊंगा
नीचे
उतना ही दूर होते जायेंगे
हिम पर्वत/आकाश/तारे
आज पड़ा हूँ
एक गहरे अंधकार में
ढूंढता उस देवदार को
जो धरती से उठ
सीधा चल देता है
आकाश की ओर
© आई बी अरोड़ा
Bahut sundar rachna.
ReplyDeleteधन्यवाद श्वेता
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