Thursday, 11 September 2014

कुछ याद नहीं
चारों ओर है घिरा अँधेरा
जाने कब था हुआ सवेरा
कब छुआ था सूरज की किरणों ने
कब अधरों पर फूल खिला था
कुछ याद नहीं
चिड़ियां चहचहाईं थीं कब खिड़कियौं में 
कब तारों का जाल बिछा था अंबर में
बच्चे झगड़े चिल्लाए थे कब आँगन में
कब देखे थे सपने सुनहरे दिन में
कुछ याद नहीं
कब दिल धड़का था सीने में
निगल गया है सब कुछ
जैसे यह अंधियारा
डूब गया हो किसी गुफ़ा में
जैसे जग सारा
एक किरन भर भी आशा
कहीं उपलब्ध नहीं
इस तम का क्या कहीं
कोई अंत नहीं
क्या कोई नहीं जो
ज्योति एक जला दे
इस बुझते हृदय में
एक पुष्प खिला दे
© आई बी अरोड़ा 

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