Monday 25 August 2014

एक मित्र के नाम
बाग़  में  जब आती थी चिनार  के सूखे पत्तों की बाड़
चुपचाप हम देखते रहते थे पर्वतों की चोटियां
वो ले लेतीं गुम्मकड़ बादलों की आड़
डल  झील के किनारे मीलों चलते रहते थे चुपचाप
सुनते दूर जाती नाव के चपुओं की धीमी धीमी थाप
यूहीं खड़े हम  देखते रहते थे पानी पर बहती लहरें
अचानक तब छू जाती थीं किसी की मासूमियत की  फुहारें
बंद रोशनी में सुनना वो पुराने गीत
ख़ामोशी को बना लेना अपने मन का मीत
सब याद है कुछ भी भुला नहीं आज तक
इतनी दूर आने के बाद भी
जैसे रुका हुआ हूँ वहीं पर अबतक
जिन पेचदार रास्तों में सदा के लिये खो गये थे तुम
उन रास्तों की यादें पर अब धीरे धीरे हो रही हैं घुम
कितना खोया कितना पाया
कितना सोचा कितना जी पाया 
सब जैसे बेमानी है
मन तो जैसे अब भी अटका है
चिनार के सूखे पत्तों में
झील की निर्मल लहरों में
बंद रोशनी और पुराने गीतों में.

©आई बी अरोड़ा 

2 comments:

  1. you are the first one to comment on my new blog. i am extremely grateful to you.looking forward to your support and appreciation. thanks

    ReplyDelete